इतने ऊँचे उठो

कविता - इतने ऊँचे उठो 

कवि - द्वारका प्रसाद माहेश्वरी 


इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।
    देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से 
    सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से 
        जाती भेद की, धर्म-वेश की 
        काले गोर रंग-द्वेष की 
        ज्वालाओं से जलते जग में 
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥ 

    नए हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो 
    नई तूलिका से चित्रों के रंग उभारो 
        नए राग को नूतन स्वर दो 
        भाषा को नूतन अक्षर दो 
        युग की नई मूर्ती-रचना में 
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥ 

    लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है 
    जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है 
        तोड़ो बंधन, रुके न चिंतन 
        गति, जीवन का सत्य चिरंतन 
        धारा के शाश्वत प्रवाह में 
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है॥ 

    चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना 
    अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना 
        सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे 
        सब हैं प्रतिपल साथ हमारे 
        दो कुरूप को रूप सलोना 
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥

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