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१८२५ ईसवी का यह चित्र दर्शा रहा है कबीर दास और उनके एक शिष्य को (http://en.wikipedia.org/wiki/Kabir) |
संत कबीर के दोहे
कबीर दास जी एक संत कवि और समाज सुधारक थे। संत कबीर भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। कबीर एक अरबी नाम है, जो अल-कबीर से आता है। इसका अर्थ है - महान - जो कि इस्लाम में अल्लाह का ३७वां नाम भी है। कबीर पंथ - एक ऐसा धार्मिक समुदाय है जो कबीर के सिद्धांतों और शिक्षाओं को अपनी जीवन शैली का आधार मानता है।
एक बात तो है, और वह यह कि संत कबीर के बारे में चाहे जितना भी लिखा या कहा जाए इस ब्लॉग के ज़रिये, अपर्याप्त ही रहेगा। इसी कारणवश मैं इस ब्लॉग में मात्र उनके बहुमूल्य कथन/दोहे (अर्थ समेत) ही प्रस्तुत कर रहा हूँ।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।
जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा ना कोय॥
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।
जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा ना कोय॥
अर्थात - जब मैं इस संसार में बुराई और गलत की खोज में निकला, तो मुझे कहीं भी बुराई नहीं दिखी। परन्तु जब मैंने खुद को टटोला, या खुद के अंदर झाँक कर देखा तो खुद को ही सबसे बुरा पाया।
विस्तार में - इतना ही कहना मात्र इस अनमोल वचन के लिए पर्याप्त नहीं है। संत कबीर के कहने का मूल अर्थ यह है कि इस संसार में अनगिनत बुराइयाँ हैं, और हम इन सभी की तुलना यदि स्वयं से करें तो इन सभी को हम अपने अंदर की बुराईयों से ओछा पाएंगे। उदाहरण के तौर पर, हम अक्सर ही खुद को किसी दूसरे व्यक्ति के किसी झूठ पर इंगित करते हुए पाते हैं। पर क्या हमने कभी सोचा है, कि हमने वैसा ही झूठ या उससे भी बड़ा, कितनी बार कहा होगा? अगर खुद को टटोला जाय तो हम अपने आप को भी उतना ही, या उससे भी बढ़कर, दोषी पाएंगे। यह दोहा केवल अपना अर्थ बता कर ही नहीं रुकता, बल्कि इसमें छुपी हुई एक बहुत ही दिलचस्प बात सामने आती है, और वह यह है कि अगर हर मनुष्य को यह एहसास हो जाए कि बुराई उसे सारे जग में नहीं ढूंढ़नी, बल्कि अपनी अंतरात्मा को टटोल कर उसे ही स्वच्छ करना है, तो यह धरती और भी बेहतर जगह साबित होगी।
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करैगा कब्ब॥
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करैगा कब्ब॥
अर्थात - जो कल करना है वह आज ही किया जाय, और जो कार्य आज पर रख छोड़ा है उसे अभी तत्काल ही शुरू किया जाय। क्योंकि अगर पल भर में ही मनुष्य पर कोई विपदा आती है, तो वह कार्य करने का समय नहीं मिल पायेगा।
विस्तार में - यह एक बहुत ही प्रसिद्ध दोहा है, जो आए दिन ही हम अपने से बड़ों को किसी छोटे या अल्प अनुभव वाले व्यक्ति से हिदायत के साथ कहते हुए सुनते हैं। कभी गुरू अपने शिष्य को, तो कभी माता-पिता अपनी संतान को, समय की महत्ता बताते हुए, अक्सर ही यह कहते हैं। अपने जीवनकाल में सभी को समय का महत्व समझना अति आवश्यक है। कारण यह कि मनुष्य औसतन अपने जीवन का एक तिहाई समय सोने या विश्राम करने में व्यतीत कर देता है। बचे हुए समय में से बहुत बड़ा हिस्सा प्रतिदिन दिनचर्या करने में, कभी बातें करने, कभी सेहत की खराबी के कारण, और कई छोटी-मोटी अनगिनत घटनाओं के कारण निकल जाता है। बचता है मुश्किल से जीवन का एक तिहाई हिस्सा जो एक व्यक्ति कार्य करने में व्यतीत कर सकता है। यही कारण है कि हर व्यक्ति को समय का महत्व समझना अनिवार्य है। संत कबीर इस दोहे के माध्यम से हमें हिदायत देते हैं कि अगर हमने खुद को आज विश्राम के आधीन किया है और अपने कार्य को कल करने की योजना बनाई है, तो हमें सतर्क हो जाना चाहिये और उस कार्य को आज ही करना चाहिए। ठीक उसी तरह आज करने वाले कार्य को अति शीघ्र करना चाहिये; क्योंकि भविष्य में क्या घटित हो जाए यह अंदेशा किसी को नहीं होता।
दु:ख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करें, दु:ख काहे को होय॥
दु:ख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करें, दु:ख काहे को होय॥
अर्थात - दु:ख के समय सभी अपने ईश्वर को स्मरण करते हैं, किन्तु सुख के समय कोई भी ऐसा नहीं करता। यदि सुख के अवसर पर भी सभी अपने ईश्वर को याद रखते हैं, तो दु:ख भला क्यों होगा कभी!
विस्तार में - कबीर
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौल कै, तब मुख बाहर आनि॥
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौल कै, तब मुख बाहर आनि॥
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥
करता था सो क्यों किया, अब करि क्यों पछताय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय॥
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े से पंडित होय॥
माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मनका मनका फेर॥
कबिरा खड़ा बाजार में, चाहे सबकी खैर।
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर॥
साईं इतना दीजिये, जामें कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु ना भूखा जाय॥
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय॥
करता था सो क्यों किया, अब करि क्यों पछताय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय॥
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े से पंडित होय॥
माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मनका मनका फेर॥
कबिरा खड़ा बाजार में, चाहे सबकी खैर।
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर॥
साईं इतना दीजिये, जामें कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु ना भूखा जाय॥
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय॥
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