Wednesday 22 October 2014

जीवन के कुछ पाठ

भारतीय सरकार के एक सेन्सस के अनुसार हमारे देश की शाक्षरता सन २००१ में लगभग ६४.८३ % थी, जबकि सन २०११ में यह बढ़कर ७४.०४ % हो चुकी है - १०% बढ़ोतरी! परन्तु क्या यह काफी है, अर्थात क्या मात्र प्रतिशत की गिनती बढ़ने से हम आज बुद्धिमान और विवेकशील हो गए हैं? हाँ, हम साक्षर अवश्य ही हो गए हैं, पहले की अपेक्षाकृत अधिक। लेकिन आज भी हम स्वयं को जाति, धर्म, रंग, अमीरी-गरीबी, प्रान्त, बोली और न जाने क्या-क्या, बंधनों में जकड़ा हुआ पाते हैं। यही नहीं, आज भी हम अंधविश्वास और प्राचीन दकियानूसी परम्पराओं में भी बंधा हुआ पाते हैं। कहने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है, कि पुरानी समस्त परम्पराएं गलत हैं, अपितु आवश्यक है, प्रत्येक को समझ-बूझ से इनका पालन करना। समय एवं परिस्थिति अनुसार परम्पराओं का जन्म होता है, और समय एवं परिस्थिति अनुसार ही इनका अंतिम संस्कार भी आवश्यक है। जीवन में उत्थान के लिए हर व्यक्ति को केवल साक्षर होना ही पर्याप्त नहीं है, इन मित्थ्या बंधनों से ऊपर उठना और सजग होना भी बहुत आवश्यक है। कवि श्री द्वारका प्रसाद माहेश्वरी की यह रचना मानव-मात्र की प्रगति हेतु एक मूल पाठ है। उनका सन्देश बड़ा ही सरल है, और वह है -

   
कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की एक अति सुन्दर रचना है  - शक्ति और क्षमा। इस रचना के माध्यम से वे व्यक्ति-मात्र को शक्ति और क्षमा के बीच की व्याख्या करते हैं। एक कविता में उदाहरणों का उनका यह प्रयोग अत्यंत ही शिष्ट है। इन्हीं उदाहरणों से वे यह स्पष्ट करते हैं, कि शक्ति की अनुपस्थिति में, मात्र क्षमा का जीवन में महत्व, क्षीण प्रतीत होता है।

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